Sunday, March 24, 2019

बिना शीर्षक

ईश्वर
यदि तुम हो!
तो
क्या चाहते हो?
अपनी नियमित पूजा-पाठ
आडम्बरयुक्त आराधना-अर्चना
पाखण्डपूर्ण सेवा-समर्पण
भोग-विलासी जीवन
तिलकधारियों की चापलूसी
जनेऊवालों की खुशामद
भेदभाव-दुराचार
छुआछूत वाली वर्ण व्यवस्था
या कुछ और
तुम जो भी चाहते हो,
मनभेद मत रखो
साफ-साफ कहो।

आखिर क्‍यों

एक दिया
मिट्टी का
जलता था कभी-कभी
भगवान के आगे
उजियारा बिखेरता

चमकते थे
अपनी रहस्यमयी मुस्कान के साथ
हाथांे में नाना प्रकार के शस्त्रधरित भगवान
मनुवाद को स्थापित करने
युद्ध के लिए सदा तैयार दिखते, पर
किसी भी रोशनी में
कभी भी दिखाई नहीं दिए
शिखाधारियों के
षड्यंत्रों को रोकते
दलितों पर होते दमन को थामते
शस्त्रधारी पत्थरदिल भगवान।

मुझे ही

जाति
खेतों में पैदा नहीं हुई
घर के अन्दर-बाहर रखे
गमलों में नहीं खिली कभी
किसी पेड़ के फल से भी
पल्लवित नहीं हुई
ना ही किसी कारखाने में निर्मित हुई
यह बनी है
तुम्हारे ही बोये बबूल के काँटों की नोंक पर
बामन!
तुम्हारे ही स्वार्थ पूर्ति के लिए
यह हरदम
मुझे दंश मारती है
तुम नहीं काटोगे
अपने बोये बबूल
मुझे ही डालना होगा मट्ठा
तुम्हारी और इसकी जड़ों मे।

गॉडफादर

सम्मान शिखर में निहित था
मैं जड़ों में खोजता रहा
शिखर तक पहुँचने का रास्ता
जो छद्मरूप से विद्यमान था
चक्रव्यूह की तरह, परन्तु
मैं द्रोण प्रदर्शित
अर्जुन नहीं था।

राजा बहरे थे

दास्तां-ए-गुलामी बयां करता
अंग्रेजियत की शताब्दी पर बना
कीर्ति-स्तम्भ खड़ा है अकड़ा हुआ
जिसकी नींव में गिरकर मरे
बेगार करते कई दलित बेमौत
उनका क्रन्दन अब भी गूँज रहा है।

घण्टाघर के हर ठोके के साथ
महल की दीवारों से टकराकर लौटती है
उनकी शान्त आवाज
जिसे सुनने के लिए
राजा के कान नहीं थे तैयार।
बचे-खुचे दलित मजदूरों को
रियाया ने भीख दी काम के बदले
उनकी आत्मा
आज भी भटक रही है
गलियों में भीख माँगने।

छप्‍पर फाड़ के

दो जोड़ी
बेबस आँखें
कभी आसमान को निहारतीं
कभी झोंपड़ी के छप्पर को
जो था कल तक
छन्नी सा
कभी चाँद को दिखाता
चाँदनी बिखेरता,
सूरज के प्रकाश को बाँटता

आज
कड़कड़ाती बिजली की चमक में
माँ का बेटी को
छाती से लगा कर
फटे आँचल से ढँपना
फिर काले आसमान की ओर
देख कर सोचती है
‘‘क्यों मेहरबान बादल
उमड़ता हुआ
आज ही
सारा पानी उड़ेल रहा है’’

इतने में
झोंपड़ी के पीछे वाली
दीवाल का भरभरा कर गिरना
छप्पर से टपकते पानी
टूटी दीवार से आती बौछारों से
मिल एकाकार हो जमीन पर फैल जाना
पास ही कहीं
बादलों का फट पड़ना
नदी, नालों व मैदानों का सीमा तोड़
जलप्लावित होना
तेज हवा के संग ठण्डक का लहरा कर
बारिश से ताल मिलाना,
ठण्डक ठिठुराती
असमय जाड़ों को ले आना

भूखी बच्ची की भोली आँखें
चेहरे पर घिर आई चिन्ता
गीली लकड़ी
बुझा चूल्हा
कैसे चढ़ती हांडी
माँ के चेहरे पर बार-बार आ टिक जातीं।

जहाँ आते-जाते
कई प्रश्न दिखाई देते
क्यों मच जाता है ऐसा विप्लब?
क्या ईश्वर कहर भी
छप्पर फाड़ कर देता है?

शांति कपोत

(दादा किसन सोनी से चर्चा करते हुए)

कबूतर
नहीं जानता फर्क
मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों
या
हवेलियों, झोंपड़ियों व खण्डहरों में
इनकी मुँडेर, दीवारों, मेहराबों, उजारदानों तथा
सदियों से कुतुब औ’ पीसा की
मीनारों पर जहाँ वह गुजारता है
अपना समय एक-सा
जिन्दगी में धर्म की विकृतियों से वह वाकिफ है
उसे अजानों व घण्टों की
आवाजों के बारे में हैं
बारीक जानकरियाँ,
तभी तो वह,
हम इंसानों के मध्य
शान्ति का प्रतीक बना है।